त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्वं मम देव देव।।
हे प्रभु, तुम्हीं मेरी माता हो, तुम ही पिता भी हो, बंधु भी तुम ही हो, सखा भी तुम ही हो। तुम ही मेरी विद्या, और हे विष्णु तुम ही देवता भी हो।
कश्चित् कस्यचिन्मित्रं, न कश्चित् कस्यचित् रिपु:।
अर्थतस्तु निबध्यन्ते, मित्राणि रिपवस्तथा ।।
न कोई किसी का मित्र है और न ही शत्रु, कार्यवश ही लोग मित्र और शत्रु बनते हैं।
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ।।
मनुष्य के शरीर में रहने वाला आलस्य ही मनुष्य का सबसे महान शत्रु होता है, तथा परिश्रम जैसा कोई मित्र नहीं होता, क्योंकि परिश्रम करने वाला व्यक्ति कभी दुखी नहीं होता, जबकि आलस्य करने वाला व्यक्ति सदैव दुखी रहता है।
उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा: ।।
उद्यम (मेहनत) से हि कार्य सिद्ध होते हैं, नाकि मनोरथों से (इच्छा करने से नहीं) । जैसे सोये हुए शेर के मुँह में हिरण स्वयं प्रवेश नहीं करता बल्कि उसे स्वयं ही प्रयास करना पड़ता है।
नाभिषेको न संस्कारः सिंहस्य क्रियते वने।
विक्रमार्जितसत्त्वस्य स्वयमेव मृगेंद्रता।।
शेर को जंगल का राजा नियुक्त करने के लिए न तो कोई राज्याभिषेक किया जाता है, न कोई संस्कार । अपने गुण और पराक्रम से वह खुद ही मृगेंद्रपद प्राप्त करता है। यानि शेर अपनी विशेषताओं और वीरता (‘पराक्रम’) से जंगल का राजा बन जाता है।
सत्य – सत्यमेवेश्वरो लोके सत्ये धर्मः सदाश्रितः।
सत्यमूलनि सर्वाणि सत्यान्नास्ति परं पदम्।।
ईश्वर ही संसार में सत्य है ; धर्म भी सत्य के ही आश्रित है; सत्य ही समस्त भव – विभव का मूल है; सत्य से बढ़कर और कुछ नहीं है।
अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।
यह अपना है, वह पराया है, ऐसी सोच छोटे ह्रदय वाले लोगों की होती है। इसके विपरीत बड़े ह्रदय वाले लोगों के लिए सम्पूर्ण धरती ही उनके परिवार के समान होती है।
वाणी रसवती यस्य, यस्य श्रमवती क्रिया ।
लक्ष्मी : दानवती यस्य, सफलं तस्य जीवितं ।।
जिस मनुष्य की वाणी (बोली) मीठी है, जिसका कार्य परिश्रम (मेहनत) से युक्त है, जिसका धन, दान करने में प्रयुक्त होता है, उसका जीवन ही सफल है।
सर्वद्रव्येषु विद्यैव द्रव्यमाहुरनुत्तमम्।
अहार्यत्वादनर्ध्यत्वादक्षयत्वाच्च सर्वदा।।
सब द्रव्यों में विद्यारुपी द्रव्य सर्वोत्तम है, क्योंकि वह किसी से हारा नहीं जा सकता; उसका मूल्य नहीं हो सकता, और उसका कभी नाश नहीं होता ।
परोपदेश पाण्डित्ये शिष्टाः सर्वे भवन्ति वै।
विस्मरन्ती ह शिष्टत्वं स्वकार्ये समुपस्थिते।।
दूसरे को उपदेश (ज्ञान) देते वक्त सब शयाने (चतुर) बन जाते हैं; पर स्वयं कार्य करने की बारी आती है, तब पाण्डित्य भूल जाते हैं ।
प्रदोषे दीपक: चन्द्र: प्रभाते दीपक: रवि:।
त्रैलोक्ये दीपक: धर्म: सुपुत्र: कुलदीपक:।।
संध्या-काल मे चंद्रमा दीपक है, प्रातः काल में सूर्य दीपक है, तीनो लोकों में धर्म दीपक है और सुपुत्र कुल का दीपक है।